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शिक्षा नीति के रूप में मिला सांस्कृतिक, सामाजिक और बोद्धिक ज्ञान का सुरक्षा कवच

  • 35 साल से जिस तथाकथित बोझ से मिलेगी मुक्ति
  • पीएम मोदी के दिशा निर्देश में गढ़ी गई नई शिक्षा नीति
  • देश के करोड़ों बुद्ध​जीवियों ने इस नीति पर रखी राय

आशीष पाण्डेय:  आजाद भारत के शिक्षा व्यवस्था को लागू कराने का श्रेय ‘थोमस बैबिंगटन मैकाले’ को जाता है। 2 फ़रवरी 1935 को ब्रिटेन की संसद में मैकाले ने भारत के लिए जिन विचारों और योजनाओं का बखान किया। उसी के मूर्तरूप को आत्मसात कर हम खुद को बौद्धिक मानते रहे हैं। 1858 में मैकोले ने जिस भारतीय शिक्षा नीति का सृजन किया था। उसका मकसद केवल यही था कि पूरी तरह से भारत की पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म किया जा सके।

उसका लक्ष्य था कि भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार हो। जो रंग और रक्त से भारतीय हो, लेकिन आचार, विचार, व्यवहार और बौद्धिकता में अंग्रेज हो। हमें अब इस बात की समीक्षा करनी होगी की मैकाले अपनी योजना कितना सफल हो सका है? इस समीक्षा का अवसर नई शिक्षा नीति के रूप में हमें मिला है। मैकाले द्वारा आजाद भारत को बौद्धिक गुलामी की ओर ले जाने लिए जिस योजना का प्रादुर्भाव किया गया, उसका विरोध तो हुआ। लेकिन तत्कालीन समय में तथाकथित भारतवंशी जो खुद को हिंदू बाई डिफाल्ट एंड इंग्लिश बाई नेचर से अलंकृत करने लगे थे, उन्हें यह विरोध रास नहीं आया। जबकि ये उस समय सत्ता के केंद्र बिंदू रहे।

हद तो यह रहा की इन्हीं लोगों ने मैकाले द्वारा सृजित इस मीठे जहर को योजनागत व चरणबद्ध रूप से शिक्षा का श्रेष्ठ माध्यम घोषित कर दिया। इस जहर ने सबसे पहले और सबसे अधिक हमारी मातृभाषा पर हमला किया। हम भूल गए कि हमारे संस्कार और व्यवहार की जननी हमारी मातृभाषा होती है। यही भाषा हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पुंजी को आगे बढ़ाने में हमारा मार्ग दर्शन करती है। लेकिन हम तो अपने मार्ग दर्शक से ही दूर होते चले गए।

शायद हमें अभी भी यह अहसास नहीं हैं कि भारत के भविष्य कहे जाने वाले बच्चे, युवा अपनी मातृभाषा का ककहरा तक भूल चुके हैं। ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की यह कविता शायद ही अब किसी अंग्रेजी मिडियम के बच्चे को याद हो, लेकिन उसे बा बा ब्लैक शीप गुनगुनाने में कोई परहेज नहीं है। कहने का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि अंग्रेजी से दूरी बना लिजिए, उसे त्याग दिजिए।

आप जितनी अधिक भाषाएँ जानेगें, सीखेंगे वह आपके लिए ही उत्तम होगा। लेकिन क्या यह भी उचित नहीं है कि हम जिस देश, राज्य, गांव से आते हैं कम से कम वहां की भाषा में हम केवल साक्षर की भूमिका में तो ना रहें। शुरूआती शिक्षा में अपनी मातृभाषा से दूरी बनाने की यह पहली सीढ़ी है। हमारी अपनी लोकभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत, बाल कविताएँ, दोहे, छंद चौपाइयाँ हैं जिन्हें हमने भूला दिया है।

हमने बच्चों के अंदर के विदेशी भाषा को लेकर जिस सोच को गढ़ा है, उसकी कुदृष्टि सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विचारों पर पड़ी। विदेशी भाषा को अंगीकार करने की सोच के उलट अगर हम देंखे तो जर्मन बच्चा अपनी मातृभाषा जर्मन में ही शिक्षा लेता है न कि अंग्रेजी में क्योंकि जर्मन उसकी मातृभाषा है। इसी प्रकार एक इटली में रहने वाला बच्चा भी इटैलियन भाषा में और स्पेन का बालक स्पैनिश भाषा में सीखता है। लेकिन हमें अपनी मातृभाषा में शिक्षित होने में संकोच होता है। इसका बड़ा प्रतिकूल प्रभाव यह पड़ा की गाँव और शहर के बच्चों में दूरियाँ बढ़ने लगी। गाँवके बच्चे अपने को हीन और शहर के बच्चे स्वयं को श्रेष्ठ, बेहतर समझने लगे। बच्चों के बीच बनी इस चौड़ी होती खाई ने समाज को कई स्तरों पर नुकसान पहुंचाया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्ग दर्शन में जिस नई शिक्षा नीति का सूत्रपात हुआ है, उसका लक्ष्य ही एक भारत, श्रेष्ठ भारत, आत्मनिर्भर भारत है। इस लक्ष्य के नींव ही मातृभाषा के सुदृढ़ीकरण पर स्थापित है। मातृभाषा से दूर होने की समझ की स्वीकार्यता विश्व में कहीं भी नहीं रही है, लेकिन हमने तो इस वैश्विक समझ से ही दूर होकर खुद को गौरवांवित करने की मुढ़ता की परपंरा चला रखी है।

नई शिक्षा नीति में जब मातृभाषा का जिक्र आया तो दक्षिण में खुद को बुद्धजीवी कहने वाले लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। जबकि यही वो लोग हैं जो महात्मा गांधी के विचारों से खुद को प्रभावित होने के बात सार्वजनिक मंचों से कई बार कर चुके हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सन् 1918 में दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का आंदोलन प्रारंभ किया था। इस काम को डॉ. सी. पी. रामस्वामी अय्यर, डॉ. ऐनी बेसेंट, महात्मा जी के सपुत्र देवदास गांधी और स्व. स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने आगे बढ़ाया। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की चार प्रांतीय शाखाएँ हैदराबाद, धारबाड़, तिरुचिरापल्ली और एरणाकुलम में स्थापित है, जो क्रमश: आंध्र प्रदेश, मैसूर, तमिलनाडु और केरल राज्यों में हिन्दी प्रचार का कार्य करती है।

एक तरफ हम खुद राष्ट्रपिता के विचारों को आत्मसात होने की बात करते हैं वहीं दूसरी तरफ मातृभाषा के प्रयोग को अंगीकार के मुदृदे की सूचिता पर प्रश्न भी खड़ा करते हैं। आखिर यह छद्म रूप किस प्रयोजन का घोतक है। महात्मा गांधी ने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में भावी भारत में भाषा और शिक्षा के स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ‘मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए।

प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीय को अपनी भाषा का ज्ञान होना चाहिए। सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी। उसे फारसी या देवनागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिन्दू और मुसलमानों में सद्भाव रहे, इसलिए बहुत से भारतीयों को ये दोनों लिपियां जान लेनी चाहिए। ऐसा होने पर हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे।

’ 20 अक्टूबर, 1917 को गुजरात के भड़ौच में आयोजित शिक्षा सम्मेलन में गांधी ने कहा था की ‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह असह्य है। यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, विचार करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाएं नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं।’

नई शिक्षा नीति 2020 के रूप में मातृभाषा का ही नहीं अपितु हमें अपने सांस्कृतिक, सामाजिक और बोद्धिक ज्ञान का सुरक्षा कवच मिला है। इस नई शिक्षा नीति का प्रस्फुटन प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान व विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में हुआ है। नई शिक्षा नीति के लागू होने से श्रेष्ठ भारत का निर्माण तो सुनिश्चित है ही साथ ही श्रेष्ठ भारत की आभा से पूरे विश्व को ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य पर पड़े आवरण को परिमार्जन करने में आसानी होगी।

 

 

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