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राजद्रोह कानून पर SC में होगी आज सुनवाई,क्या अब राजद्रोह कानून ही होगा खत्म?

  • राजद्रोह कानून पर SC में होगी आज सुनवाई

  • आईपीसी की धारा 124ए राजद्रोह कानून

  • अदालतों में जाने की स्वतंत्रता

(नेशनल डेस्क) राजद्रोह कानून पर रोक लगाने के करीब 7 महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट औपनिवेशिक काल के दंडात्मक कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सोमवार यानी आज सुनवाई करने वाला है।राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज किये गये और 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि, छह साल की इस अवधि में राजद्रोह के सात मामलों में गिरफ्तार केवल 12 लोगों को दोषी करार दिया गया.

7 महीने बाद आज राजद्रोह कानून पर SC में होगी सुनवाई, क्या हमेशा के लिए होगा खत्म ?

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र एवं राज्य सरकारों को आजादी के पहले के इस कानून के तहत कोई नई एफआईआर दर्ज नहीं करने के निर्देश भी दिये थे. चीफ डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा की पीठ ने कानून के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर याचिका सहित 12 याचिकाओं पर सुनवाई के लिए लिस्टिंग किया है.भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए  के तहत अधिकतम सजा उम्रकैद का प्रावधान है. इसे देश की स्वतंत्रता के 57 साल पहले और आईपीसी बनने के लगभग 30 साल बाद, 1890 में इसे दंड संहिता में शामिल किया गया था. आजादी से पहले के कालखंड में बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ प्रावधान का इस्तेमाल किया गया है.

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शीर्ष अदालत ने कहा था कि किसी प्रभावित पक्ष को संबंधित अदालतों में जाने की स्वतंत्रता है और अदालतों से अनुरोध है कि मौजूदा आदेश पर विचार करते हुए राहत की अर्जियों पर विचार करे. अदालत ने कहा,”आईपीसी की धारा 124ए के तहत तय आरोपों के संबंध में सभी लंबित मुकदमों, अपीलों और कार्यवाहियों पर रोक बरकरार रहेगी.अन्य धाराओं के संबंध में निर्णय लिया जा सकता है, यदि अदालतों की राय है कि आरोपी के साथ पक्षपात नहीं होगा.” पुलिस अधीक्षक रैंक के अधिकारी को राजद्रोह के आरोप में दर्ज प्राथमिकियों की निगरानी करने की जिम्मेदारी देने के केंद्र के सुझाव पर पीठ सहमत नहीं हुई है.

इंडियन पीनल कोर्ट की धारा (IPC) 124ए (राजद्रोह) के तहत अधिकतम सजा उम्रकैद का प्रावधान है. इसे देश की स्वतंत्रता के 57 साल पहले तथा आईपीसी बनने के लगभग 30 साल बाद, 1890 में इसे दंड संहिता में शामिल किया गया था.

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